किस बात का डर है

क्या सोचते हो ‘देव’
क्या अंजाम का डर है
क्यों नाराज हो खुद से
क्या इल्जाम का डर है

हो गया जो होना था
ये बेनाम सा डर है
इन बातों पर किसी का जोर नहीं
ये नाकाम सा डर है

डरने से मुनासिब क्या होगा
डर के कहां तक जाओगे
इस मोड़ से हजारों रास्ते गुजरते हैं
लौट कर यहीं ना आओगे

तो फिर – किस बात का डर है
यह बातें – यह रातें – गमगीन वारदातें –
पहले भी हो चुका है वो सब
जिस बात का डर है!

मगर अब के जो चौराहे पर रुको
तो अपने आप से यह जरूर पूछ लेना
क्या जो कर रहे हो – सही कर रहे हो?
और अगर सही लगे –
  – तो किस बात का डर है

पर उम्मीद का एक कतरा भी बचा हो
तो उसे थाम कर रखना ‘देव’
क्या पता तुम्हारा वो कतरा
किसी और का सब कुछ हो

और यही सोच कर मुड जाना
यह मंजिल तुम्हारी नहीं है
रास्ता तुम्हारा नहीं है – इस चौराहे से
तीन और रास्ते निकलते हैं

मुड़ जाना – और चले जाना
एक हाथ डर दूसरे हाथ उम्मीद दबाए
चले जाना जहां से आए थे
और वक्त देना अपने डर को

वक्त ने बहुतों के जख्म भरे हैं
क्या पता जिस बात का तुम्हें डर हो
उस बात की बुनियाद पे
नए सवेरे खड़े हैं!

– तो किस बात का डर है?

Dev | 14.06

क्या गुनहगार हूं मैं?

क्या गुनहगार हूं मैं
नाकाम रास्तों की मंजिलें हजार हूं मैं

मेरा ख्वाबों से है रिश्ता गहरा
ख्वाब मेरे हजार हैं
रास्ते सारे सूने तो क्या
ये रास्ते मेरे यार हैं!

— तो क्या गुनहगार हूं मैं?
     नाकाम मंजिलों के रास्ते हजार हूं मैं

सुनहरे कल की याद में
आंख मूंद सोया रहा
कल को जीने की आस में
आज भी खोया रहा

— तो क्या गुनहगार हूं मैं?

बस और नहीं सहा जाता
यह मन मेरा मचलता है
सपनों को जीना चाहता हूं
सच देख के दिल यह जलता है

बस इतनी सी ख्वाहिश है मेरी
जिसको जीना चाहता हूं
सुकून भरे एक जाम को मैं
सुकून से पीना चाहता हूं

—- तो क्या गुनहगार हूं मैं?

– देव। 10.04

थक गया हूं मैं!

थक गया हूं मैं
इस होड़ में
दौड़ते-दौड़ते
इस दौड़ में
थक गया हूं मैं!

कहां था, कहां हूं, कहां जा रहा हूं,
ना सोचने का वक्त है
ना पूछ सकूं
उतना सख्त हूं
और इस नकाब के बोझ से
दब गया हूं मैं
इस दौड़ में
थक गया हूं मैं!

शहर की इस भीड़ में
अब मुझे अपनी छवि भी
धुंधली सी दिखाई देती है
चारों तरफ मेरे आस-पास
झूठे दर्द की नुमाइश है
परेशानी जैसे मुफ्त में बिकती है

नहीं रहा जाता यहां, वहां जा रहा हूं
आवाज लगा रही है
सपनों वाली नगरी जो
दौड़ा चला जा रहा हूं
अब इन ख्वाहिशों की चींख से
टूट गया हूं मैं
इस दौड़ से
थक गया हूं मैं!

थक गया हूं मैं
इस होड़ में
दौड़ते-दौड़ते
इस दौड़ में
थक गया हूं मैं!

– dev.

अंधेरा #2

सुर्ख आंखे नम कर रो जाता हूं
हर श्याम यह कह कर सो जाता हूं
कि कल मेरा सवेरा होगा
ना घने बादल ना अंधेरा होगा

पर श्याम दर श्याम निकल जाती है
हर धूप यह कहकर ढल जाती है
कि कल फिर घना अंधेरा होगा
और तू फिर से बडा अकेला होगा

उस अंधेरे में मैं कुछ थम जाता हूं
निराश मैं दिल को समझाता हूं
के रात की हवा तूफानी होगी
बस डटे रहो, आसानी होगी

खुद ही का तू सहारा खुद बन
अपनी मझधार का किनारा खूद बन
जब तक ना थमें यह तूफानी हवाएं
अपने अंधेरे का उजाला खुद बन।

dev.

अंधेरा। #1

वो देखो, उस ओर, वहां सन्नाटे का शोर है
चारों तरफ देखो तुम्हारे, अंधेरा बड़ा घोर है
हर तरफ बस खामोशी की चींख सुनाई देती है
काले घने अंधेरे वाली रात ये मुझसे कहती है,

“क्या तुम भी उस रोशनी को देख कर मुस्का रहे हो
इतराते उन जुगनुओं की तरफ कदम बढ़ा रहे हो
इनकी चमक तो नाज़ुक इतनी चंद सांसों में निगल जाऊंगा
रात का अंधेरा हूं “देव” हर रात में फिर से आऊंगा!”

-देव।