क्या सोचते हो ‘देव’
क्या अंजाम का डर है
क्यों नाराज हो खुद से
क्या इल्जाम का डर है
हो गया जो होना था
ये बेनाम सा डर है
इन बातों पर किसी का जोर नहीं
ये नाकाम सा डर है
डरने से मुनासिब क्या होगा
डर के कहां तक जाओगे
इस मोड़ से हजारों रास्ते गुजरते हैं
लौट कर यहीं ना आओगे
तो फिर – किस बात का डर है
यह बातें – यह रातें – गमगीन वारदातें –
पहले भी हो चुका है वो सब
जिस बात का डर है!
मगर अब के जो चौराहे पर रुको
तो अपने आप से यह जरूर पूछ लेना
क्या जो कर रहे हो – सही कर रहे हो?
और अगर सही लगे –
– तो किस बात का डर है
पर उम्मीद का एक कतरा भी बचा हो
तो उसे थाम कर रखना ‘देव’
क्या पता तुम्हारा वो कतरा
किसी और का सब कुछ हो
और यही सोच कर मुड जाना
यह मंजिल तुम्हारी नहीं है
रास्ता तुम्हारा नहीं है – इस चौराहे से
तीन और रास्ते निकलते हैं
मुड़ जाना – और चले जाना
एक हाथ डर दूसरे हाथ उम्मीद दबाए
चले जाना जहां से आए थे
और वक्त देना अपने डर को
वक्त ने बहुतों के जख्म भरे हैं
क्या पता जिस बात का तुम्हें डर हो
उस बात की बुनियाद पे
नए सवेरे खड़े हैं!
– तो किस बात का डर है?